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कंकाल-अध्याय -८४

'मैंने पहले कहा है कि समाज-सुधार भी हो और संघर्ष से बचना भी चाहिए। बहुत से लोगों का यह विचार है कि सुधार और उन्नति में संघर्ष अनिवार्य है; परन्तु संघर्ष से बचने का उपाय है, वह है-आत्म-निरीक्षण। समाज के कामों में अतिवाद से बचाने के लिए यह उपयोगी हो सकता है। जहाँ समाज का शासन कठोरता से चलता है, वहाँ द्वेष और द्वन्द्व भी चलता है। शासन की उपयोगिता हम भूल जाते हैं, फिर शासन केवल शासन के लिए चलता रहता है। कहना नहीं होगा कि वर्तमान हिन्दू जाति और उसकी उपजातियाँ इसके उदाहरण हैं। सामाजिक कठोर दण्डों से वह छिन्न-भिन्न हो रही हैं, जर्जर हो रही हैं। समाज के प्रमुख लोगों को इस भूल को सुधारना पड़ेगा। व्यवस्थापक तन्त्रों की जननी, प्राचीन पंचायतें, नवीन समस्याएँ सहानुभूति के बदले द्वेष फैला रही हैं। उनके कठोर दण्ड से प्रतिहिंसा का भाव जगता है। हम लोग भूल जाते हैं कि मानव स्वभाव दुर्बलताओं से संगठित है।

'दुर्बलता कहाँ से आती है? लोकापवाद से भयभीत होकर स्वभाव को पाप कहकर मान लेना एक प्राचीन रूढ़ि है। समाज को सुरक्षित रखने के लिए उससे संगठन में स्वाभाविक मनोवृत्तियों की सत्ता स्वीकार करनी होगी। सबके लिए एक पथ देना होगा। समस्त प्राकृतिक आकांक्षाओं की पूर्ति आपके आदर्श में होनी चाहिए। केवल रास्ता बन्द है-कह देने से काम नहीं चलेगा। लोकापवाद संसार का एक भय है, एक महान् अत्याचार है। आप लोग जानते होंगे कि श्रीरामचन्द्र ने भी लोकापवाद के सामने सिर झुका लिया। 'लोकापवादी बलवाल्येन त्यक्ताहि मैथिली' और इसे पूर्व काल के लोग मर्यादा कहते हैं, उनका मर्यादा पुरुषोत्तम नाम पड़ा। वह धर्म की मर्यादा न थी, वस्तुतः समाज-शासन की मर्यादा थी, जिसे सम्राट ने स्वीकार किया और अत्याचार सहन किया; परन्तु विवेकदृष्टि से विचारने पर देश, काल और समाज की संकीर्ण परिधियों में पले हुए सर्वसाधारण नियम-भंग अपराध या पाप कहकर न गिने जायें, क्योंकि प्रत्येक नियम अपने पूर्ववर्ती नियम के बाधक होते हैं। या उनकी अपूर्णता को पूर्ण करने के लिए बनते ही रहते हैं। सीता-निर्वासन एक इतिहास विश्रुत महान् सामाजिक अत्याचार है, और ऐसा अत्याचार अपनी दुर्बल संगिनी स्त्रियों पर प्रत्येक जाति के पुरुषों ने किया है। किसी-किसी समाज में तो पाप के मूल में स्त्री का भी उल्लेख है और पुरुष निष्पाप है। यह भ्रांत मनोवृत्ति अनेक सामाजिक व्यवस्थाओं के भीतर काम कर रही है, रामायण भी केवल राक्षस-वध का इतिहास नहीं है, किन्तु नारी-निर्यातन का सजीव इतिहास लिखकर वाल्मीकि ने स्त्रियों के अधिकार की घोषणा की है। रामायण में समाज के दो दृष्टिकोण हैं-निन्दक और वाल्मीकि के। दोनों निर्धन थे, एक बड़ा भारी उपकार कर सकता था और दूसरा एक पीड़ित आर्य ललना की सेवा कर सकता था। कहना न होगा कि उस युद्ध में कौन विजयी हुआ। सच्चे तपस्वी ब्राह्मण वाल्मीकि की विभूति संसार में आज भी महान् है। आज भी उस निन्दक को गाली मिलती है। परन्तु देखिये तो, आवश्यकता पड़ने पर हम-आप और निन्दकों से ऊँचे हो सकते हैं आज भी तो समाज वैसे लोगों से भरा पड़ा है-जो स्वयं मलिन रहने पर भी दूसरों की स्वच्छता को अपनी जीविका का साधन बनाये हुए हैं।

'हमें इन बुरे उपकरणों को दूर करना चाहिए। हम जितनी कठिनता से दूसरों को दबाये रखेंगे, उतनी ही हमारी कठिनता बढ़ती जायेगी। स्त्रीजाति के प्रति सम्मान करना सीखना चाहिए।

'हम लोगों को अपना हृदय-द्वार और कार्यक्षेत्र विस्तृत करना चाहिए, मानव संस्कृति के प्रचार के लिए हम उत्तरदायी हैं। विक्रमादित्य, समुद्रगुप्त और हर्षवर्धन का रक्त हम है संसार भारत के संदेश की आशा में है, हम उन्हें देने के उपयुक्त बनें-यही मेरी प्रार्थना है।'

आनन्द की करतल ध्वनि हुई। मंगलदेव बैठा। गोस्वामी जी ने उठकर कहा, 'आज आप लोगों को एक और हर्ष-समाचार सुनाऊँगा। सुनाऊँगा ही नहीं, आप लोग उस आनन्द के साक्षी होंगे। मेरे शिष्य मंगलदेव का ब्रह्मचर्य की समाप्ति करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का शुभ मुहूर्त भी आज ही का है। यह कानन-वासिनी गूजर बालिका गाला अपने सत्साहस और दान से सीकरी में एक बालिका-विद्यालय चला रही है। इसमें मंगलदेव और गाला दोनों का हाथ है। मैं इन दोनों पवित्र हाथों को एक बंधन में बाँधता हूँ, जिसमें सम्मिलित शक्ति से ये लोग मानव-सेवा में अग्रसर हों और यह परिणय समाज के लिए आदर्श हो!'

कोलाहल मच गया, सब लोग गाला को देखने के लिए उत्सुक हुए। सलज्जा गाला गोस्वामी जी के संकेत से उठकर सामने आयी। कृष्णशरण ने प्रतिमा से दो माला लेकर दोनों को पहना दीं।

गाला और मंगलदेव ने चौंककर देखा, 'पर उस भीड़ में कहने वाला न दिखाई पड़ा।'

भीड़ के पीछे कम्बल औढ़े, एक घनी दाढ़ी-मूँछ वाले युवक का कन्धा पकड़कर तारा ने कहा, 'विजय बाबू! आप क्या प्राण देंगे। हटिये यहाँ से, अभी यह घटना टटकी है।'

'नये, नहीं,' विजय ने घूमकर कहा, 'यमुना! प्राण तो बच ही गया; पर यह मनुष्य...' तारा ने बात काटकर कहा, 'बड़ा ढोंगी है, पाखण्डी है, यही न कहना चाहते हैं आप! होने दीजिए, आप संसार-भर के ठेकेदार नहीं, चलिए।'

तारा उसका हाथ पकड़कर अन्धकार की ओर ले चली।

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